सन्त होसे मारिया रुबियो पेराल्टा का जन्म 22 जुलाई 1864 में एक साधारण से खेती-बाड़ी का काम करने वाले परिवार में हुआ। वह तीन भाइयों में सबसे बड़े थे और स्पेन, अल्मेरिया के डालियास गाँव में धार्मिक बचपन के साथ और पारम्परिक तौर तरीके से रहे। 11 वर्ष की उम्र में उन्होंने अल्मेरिया की सेमीनरी में प्रवेश किया और चार वर्षों के पश्चात् उन्होंने पुरोहित बनने के अध्ययन का आरम्भ किया, जो बाद में 22 वर्ष की उम्र में मैड्रिड की सेमीनरी में जाकर समाप्त हुआ। धर्मशास्त्र के कैनन धर्म कानून में डॉक्टर और धर्मविज्ञान की उपाधि प्राप्त करने के पश्चात् उन्हें 24 सितम्बर 1887 में पुरोहित के रूप में अभिषिक्त किया गया।
उनकी पहली कार्य नियुक्ति मैड्रिड के एक शहर, चिनचोन की धर्म पल्ली में हुई जहाँ पर उन्होंने दो वर्षों तक एक सहयोगी के रूप में और एक वर्ष के लिए एक पासबान के रूप में नजदीक के शहर एसत्रेमेरा में कार्य किया। इस समय के मध्य में वह सादगी भरे जीवन यापन, बच्चों को धर्म शिक्षा देने और ग़रीबों की सेवा करने के रूप में जाने गए।
1893 में उन्हें मैड्रिड में साक्रामेंतो चर्च में बर्नार्दास मठवासिनियों के लिए पादरी नियुक्ति किया गया। वहाँ पर राजधानी के उपनगर में “कूड़ा बीनने वालों और दर्ज़ी का कार्य करने वाली स्त्रियों” के साथ, आस पास के पड़ोस में मुलाकात करने के लिए जाना जैसे एन्त्रेवियास और वेन्तीया जहाँ उन्होंने विद्यालयों की स्थापना की थी, परमेश्वर के वचन का प्रचार किया और कई मसीही विश्वासियों को निर्मित करने जैसी गतिविधियों में अपना समय व्यतीत किया। उसी समय वह अपने पासबानी कार्य में अंगीकरण के कार्य लिए भी जाने पहचाने जाने लगे थे। 1890-1894 के वर्षों के मध्य में उन्होंने अपने समय को मैड्रिड में लैटिन साहित्य, तत्वमीमांसा और पासबानी धर्मविज्ञान को सेमीनरी में शिक्षण और व्याख्यान देने के लिए भी समर्पित किया।
1904 में उन्होंने एक तीर्थ यात्री के रूप में पवित्र भूमि और रोम की यात्रा की, जिसने उन पर सोसाइटी ऑफ़ जीज़स में प्रवेश लेने के लिए निर्णय लेने के ऊपर बहुत अधिक प्रभाव डाला, जिसे वह अपने विद्यार्थी होने के जीवन के समय से करने के इच्छुक थे परन्तु यह तब तक सम्भव नहीं हुआ जब तक कि उनके संरक्षक और सरपरस्त पुरोहित होआकिन तोर्रेस असेन्सियो की मृत्यु नहीं हो गयी। 1908 में 43 वर्ष की उम्र में उन्होंने ग्रेनेडा की सोसाइटी ऑफ़ जीज़स में एक शिक्षार्थी के रूप में प्रवेश किया। 1911 में अपने प्रशिक्षण को समाप्त करने के पश्चात् उन्हें मैड्रिड के प्रोफ़ेसेस हाऊस के लिए नामित किया गया जहाँ पर उन्होंने 2 मई 1929 को व्यवहारिक रूप से अरांहुएज़ में अपनी मृत्यु तक तीव्र प्रेरिताई के जीवन को विकसित किया। उनको दफ़न किए जाने की सभा में लगभग दो हज़ार लोग सम्मिलित हुए थे और उनका विवरण आर्चबिशप एईहो गराई ने “मैड्रिड के प्रेरित” के रूप में करते हुए उन्हें अपने धर्मप्रान्त के पुरोहितों के लिए एक नमूना घोषित किया।
उनके चरित्र के समर्थन में, वे सभी जिन्होंने उनके जीवन और सेवा के बारे में गवाही दी, ने यह स्वीकार किया कि उनके जीवन काल के मध्य में उन्हें पहले से ही एक सन्त माना जाता था। उन्होंने सदैव यह महसूस किया कि उन्हें मसीह के द्वारा “भेजा” गया था जिसने उन्हें उसके लिए कार्य करने, और उसके साथ रहने और उसकी आराधना करने के लिए बुलाया था। परिणामस्वरूप, उन्होंने अथकता से कार्य किया और वह घनिष्ठता में प्रभु के साथ कई घण्टे प्रार्थना में बिताया करते थे। उनके प्रेरिताई और धर्मार्थ कार्य उनके आध्यात्मिक जीवन से, एक नम्र और दीन यीशु के ऊपर ध्यान मनन करने से उत्पन्न हुए थे जो सन्त इग्नेशियस के आध्यात्मिक अभ्यासों में प्रगट होते हैं, जिसे सभी यीशु समाजी अभ्यास में लाते हैं। जो कोई उनके पास परामर्श पाने के लिए आता था उसके लिए उन्होंने अंगीकरण के लम्बे घण्टों और धैर्य के साथ उनकी बात सुनने में समर्पित किए। इसलिए यह बात अर्थपूर्ण है कि आज के दिन भी उनकी शक्तिशाली उपस्थिति मैड्रिड के उपनगरों के ग़रीबों के मध्य में पाई जाती है।
निश्चित रूप से उन्होंने उन ग़रीबों को ऐसे स्वीकार किया जैसे कि वह प्रभु के द्वारा चुने हुए थे और बिना किसी पक्षपात और प्रेम के उन्होंने उन्हें अपना समय दिया और उनके लिए अपनी ऊर्जा ख़र्च की। परन्तु फिर भी वे अत्यावश्यक विषयों के लिए ही कार्य करने में सन्तुष्ट नहीं थे; उन्हें युवा लोगों के भविष्य के बारे में भी चिन्ता थी जिनके लिए उन्होंने विद्यालयों की स्थापना की और इन जवानों को शिक्षा देने के लिए शिक्षकों को तैयार किया। उन्होंने गलियों में और प्रसिद्ध मिशनों के चौराहों पर यीशु के शुभ सन्देश को बाँटा और उन्होंने कई प्रार्थनालयों का निर्माण किया।
ऐसा कहा जाता है कि उन सभी का जो उनके पाए आए उन्होंने उनका स्वागत किया और सभी पर समानता के साथ ध्यान दिया और अक्सर उनके साथ मुलाकात आध्यात्मिक दिशा की ओर बढ़ जाती थी, जो विश्वास की शर्त के रूप में एक सबसे ज्यादा आवश्यकता के लिए निमंत्रण की सेवा में समाप्त होती थी। इस कारण लोगों ने उनका अनुसरण पुरूषों और स्त्रियों की संगठित समूहों के रूप में किया, जैसे कि “मिलाप वाले तम्बू की मरियम”का समूह जो जरूरतमंदों के पक्ष में, एक बड़ी शक्ति के साथ युखारिस्त अर्थात् परमप्रसादीय आध्यात्मिकता के साथ कई पहलों में से एक है।
जीवन के प्रति उनका आदर्श वाक्य सदैव “वह करो जो परमेश्वर चाहता है, और वही चाहो जो परमेश्वर करता है” रहा था, और हम कह सकते हैं कि यही उनके यीशु समाजी जीवन के मध्य में उनके हृदय की लय का चिन्ह था। परमेश्वर के एक “शक्तिशाली मित्र” होने का उनका हमें दिया नमूना हमें वैसे ही निरन्तर प्रभु को प्रेम और सेवा करने के लिए चुनौती देता है।
6 अक्तूबर 1985 में उन्हें धन्य ठहराया गया और बाद में 4 मई 2003 में उन्हें पोप जॉन पाल द्वितीय के द्वारा सन्त घोषित किया गया। वर्तमान में, उनका मृत शरीर मैड्रिड में सोसाइटी ऑफ़ जीज़स के एक गिरजाघर में रखा हुआ है जहाँ पर बड़ी सँख्या में उनकी मध्यस्थता के द्वारा प्राप्त किए गए चंगाई के आश्चर्यकर्मों के लिए कृतज्ञता से भरे हुए लोग उनका दर्शन करने के लिए आते हैं।